Saturday, September 26, 2015

दशरथ मांझी : एक अद्भुत चरित्र


                         मैंने बहुत से महापुरुषों को पढ़ा है किन्तु यह मेरा दुर्भाग्य ही था की मैंने आज तक दशरथ मांझी जैसे देव पुरुष को कभी नहीं पढ़ा। दशरथ मांझी ने अपने जीवन के दो दशक हथौड़ी और छेनी से पहाड़ काटकर रास्ता बनाने में व्यतीत कर दिए। उनका जीवन संघर्ष, त्याग, प्रेम और परोपकार का प्रतीक है।
यह सच्ची कहानी है दशरथ मांझी नाम के एक गरीब आदमी की। 

दशरथ मांझी का जन्म 1934 ई. में बिहार के गेलहर गॉंव में एक बहुत गरीब परिवार में हुआ। आधुनिक काल में प्रचलित एक घृणित परंपरा  अनुसार वे बिहार के आदिवासी जनजाति में के बहुत निम्न स्तरीय मुसाहर जनजाति से थे। उनकी पत्नी का नाम फाल्गुनी देवी था। दशरथ मांझी के लिए पीने का पानी ले जाते फाल्गुनी देवी दुर्घटना की शिकार हुई।  उन्हें तत्काल डॉक्टरी सहायता नहीं मिल पाई।  शहर उनके गॉंव से लगभग 70 किलोमीटर दूर था किन्तु  वहॉं तक तुरंत पहुँचना संभव नहीं था। दुर्भाग्य से समुचित  उपचार के अभाव में फाल्गुनी देवी की मौत हो गई। 

ऐसा प्रसंग किसी और पर न गुजरे, इस विचार ने दशरथमांझी को वो प्रेरणा दी जिसकी मिसाल आम आादमी के तो बस  की बात नही थी। इससे यह भी एक बार फिर सिद्ध हुआ की किसी व्यक्ति को कही भी, कभी भी, कुछ भी प्रेरणा मिल सकती है। 

समीप के शहर की 70 किलोमीटर की दूरी कैसे पाटी जा सकती है इस दिशा में उनका विचार चक्र चलने लगा।  उनके ध्यान में आया कि, शहर से गॉंव को अलग करने वाला पर्वत हटाया गया तो यह दूरी बहुत कम हो जाएगी।   पर्वत तोडने के बाद शहर से गॉंव तक की सत्तर किलोमीटर दूरी केवल सात किलोमीटर रह जाती। उन्होंने यह काम शुरू करने का दृढ निश्चय किया, लेकिन काम आसान नहीं था।   इसके लिए उन्हें उनका रोजी-रोटी देने का दैनंदिन काम छोडना पड़ता। उन्होंने अपनी बकरियॉं बेचकर छैनी , हथोड़ा  और फावडा खरीदा। अपनी झोपडी काम के स्थान के पास बनाई. इससे अब वे दिन-रात काम कर सकते थे। इस काम से उनके परिवार को दुविधाओं का सामना करना पड़ा, कई बार दशरथ को खाली पेट ही काम करना पड़ा। 

               उनके आस-पास से लोगों का आना-जाना शुरू था। आस पास के गांवों  में इस काम की चर्चा हो रही थी। सब लोगों ने दशरथ को पागल मान लिया था। उनकी हँसी उड़ाई जा रही थी। उन्हें गॉंव के लोगों की तीव्र आलोचना सहनी पडती थी। लेकिन वे कभी भी अपने निश्चय से नहीं डिगे। जैसे-जैसे काम में प्रगति होती उनका निश्चय और भी पक्का होता जाता। 

                 लगातार बाईस वर्ष दिन-रात किए परिश्रम के कारण 1960 में शुरु किया यह असंभव लगने वाला काम 1982 में पूरा हुआ। उनके अकेले के परिश्रम ने अनिश्चित  लगने वाला कार्य , पर्वत तोडकर 360  फुट लंबा, 25  फुट ऊँचा और 30  फुट चौडा रास्ता बना डाला। इससे गया जिले में  आटरी और वझीरगंज इन दो गॉंवों में का अंतर दस किलोमीटर से भी कम रह गया। उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी – जिसकी प्रेरणा से उन्होंने यह असंभव लगने वाला काम पूरा किया, उस समय उनके पास नहीं थी, किन्तु गॉंव के लोगों से जैसे बन पड़ा, उन्होंने मिठाई, फल दशरथजी को लाकर दिए और उनके साथ उनकी सफलता की खुशी मनाई। आज तो उनके क्षेत्र  जनता भी चॉंव से इस पर्वत को हिलाने वाले देवदूत की कहानी सुनने लगे है।  गॉंव वालों ने दशरथ जी को ‘साधुजी’ पदवी दी है। दशरथ जी कहते थे , ‘‘मेरे काम की प्रथम प्रेरणा है मेरा पत्नी पर का प्रेम. उस प्रेम ने ही पर्वततोडकर रास्ता बनाने की ज्योत मेरे हृदय में जलाई।   करीब के हजारों लोग अपनी रोजाना की  आवश्यकताओं के लिए बिना कष्ट किए समीप के शहर जा सकेगे, यह मेरी आँखो के सामने आने वाला दृश्य  मुझे दैनिक कार्य के लिए प्रेरणा देता था।   इस कारण ही मैं चिंता और भय को मात दे सका.’’
आज दशरथ मांझी इस संसार में नही हैं किन्तु उनके अथक परिश्रम ने उन्हें देवता तो बना ही दिया है।

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